बचपन में
मेरे आँगन में बहुत आती थी
याद है मुझे
ट्युब लाइट पर
रोशनदान पर
तिनका तिनका लाकर घोसला बनाती थी
अपने बच्चों को
अपनी नन्ही चोंच से खाना खिलाती थी
बच्चों के पर निकलते ही
वे फुदकने लगते थे
कभी कभार नीचे गिर जाते थे
तब उन बच्चों को
हम बच्चे
आटा घोलकर खिलाया करते थे
उनकी माँ चिड़िया को बड़ा गुस्सा आता था
बच्चें बड़े हो उड़़ जाते थे
घोसलें खाली हो जाते थे
लेकिन आँगन में चिड़िया रोज आती थी
हम कविताएं भी चिड़ियों की गाते थे
खेल में भी चिड़िया होती थी
तोता उड़़, चिड़िया उड़
खेलकर अपना बचपन जीते थे
गुलजार था बचपन इन चिड़ियों से
लेकिन अब
न घोसले है, न आँगन है और ना ही चिड़िया
अब बचपन भी कहाँ गुलज़ार है