Thursday, January 30, 2020

अनुपस्थिति

मैं अब तोड़ना चाहती हूँ
उस अनवरत संवाद को
जो तुम्हारी अनुपस्थिति में
हुआ है तुमसे लागातार
क्योकि 
अब ये मुझे तोड़ने लगा है
बाहर आना है इस भ्रम से
कि तुम हो
बस, याद रखनी वही बातें
जो रुबरू कभी हुई थी
याद रखने है
जीवन के वही पाठ
जो तुमसे सीखे
या तुम्हारे
साहचार्य ने सिखाये 
जब तुम नहीं हो तो
स्वीकार करना
और जब हो, तो
टिमटिमाते उन तारों को देख मुस्कुराना
साफ आसमान में 
उस चाँद के दाग देखना
और 
मन ही मन बुदबुदाना
स्पष्टता ही जीवन है 
और
ये स्पष्ट है कि
तुम्हारा होना क्षणिक है, जबकि
न होना शाश्वत
शुक्रिया.....
तुम्हारा न होना भी 
मुझे कितना कुछ सिखाता है 
बस, इस न होने के होने को
हमेशा साथ पाऊँ 

7 comments:

  1. आत्ममुग्ध करती रचना। एक संकल्पना के साथ जीवन जीना और स्वयं ही मुग्ध होना, आपने बखूबी लिखा है इस रचना में । बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। लिखते रहें ।

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  2. निरन्तरता बनाये रखें अच्छा लिखती हैं।

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